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साधना

01/03/2022
साध्वी वृंदा ओम
साधना, अर्थात स्वयं को साधने की कला। अति दुर्गम होता यह पथ। किंतु, किसी भी अन्य सांसारिक सुख की तुलना में कहीं अधिक श्रेष्ठ व सुखद। साध्वी वृंदा ओम के इस मनमोहक व हृदय को मथ कर रख देने वाले लेख में है एक अचंभित कर देने वाला अनुभव, जो साधना की गूढ़, रहस्यपूर्ण व प्रेरणास्पद यात्रा से आपको परिचित कराता है।आइए देखें कि गुरु कृपा से क्या कुछ संभव नहीं?
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“जिसे उस परम कृपा का मन्त्र ज्ञात हो गया हो, वह विरक्त होता है, इसमें कोई सन्देह नहीं। चाहे वह किसी तीर्थक्षेत्र में हो, या किसी ऐसे स्थान पर बसा हो जहाँ से बाहर जाने का कोई मार्ग न हो, या इस जगतरुपी महासागर के मध्य बसा हो।”

~जॉन वुडरोफ महोदय द्वारा “कुलार्णव तन्त्र”

शाश्वत निवास की ओर प्रवास

एक बार मैंने कहीं पढ़ा कि ‘जो ईश्वर का है वह उन्हें ही विनम्रतापूर्वक अर्पण करना चाहिए’। उसके पश्चात् मेरे मन में विचार आया, “किन्तु हम स्वयं ही तो ईश्वर के हैं, तो उन्हें हमारे सम्पूर्ण अस्तित्व से कुछ भी कम अर्पण करना अयोग्य है।”

भौतिक उपहारों में से यदि ईश्वर के श्रीचरणों में कुछ अर्पण करने का हम विचार करें, तो स्वयं को ही अर्पित करना, श्रेष्ठतम अर्पण होगा। मन ही मन एकाग्रता से ईश्वर का किया हुआ नामस्मरण, प्रेम से गाया हुआ कोई भजन, प्यारे भगवान् को सुगन्धित द्रव्यों से किया गया अभिषेक, एवं भावपूर्वक किया गया यज्ञकर्म ही, स्वयं का शुद्ध रुप में अर्पण है। 

हमारा तन एवं मन, चाहे कलुषित, दिशाहीन या सम्भ्रमित हो, किन्तु हमारा जीवनाधार प्राण, जो हमारे भीतर वास करता है, वह उन्ही का स्वरुप है। जब प्राण देह का त्याग कर दे, तब हमारा देह पुनः मिट्टी ही तो हो जाता है। हम इस जगत में न कुछ लेकर आए, एवं कर्मों के नूतन सञ्चित के अतिरिक्त, न कुछ लेकर जाएंगे। 

कर्मों का चक्र सदैव कार्यरत रहता है। जन्म-मृत्यु की इस शृंखला में, हम प्रत्येक बार किसी नूतन रुप में जन्म लेते हैं, किन्तु आत्मा सदैव एक ही रहती है। अतः कुछ लोग जीवन से ही विमुख हो जाते हैं। सब कुछ होने के पश्चात् भी वे स्वयं को अंदर से थका हुआ, एकाकी एवं रिक्त अनुभव करते हैं। इसका कारण केवल इस जन्म के उतार – चढ़ाव एवं बोझ न होकर, जन्म-जन्मांतर की सञ्चित चित्तवृति है, जिससे आत्मा उदासीन हो जाती है। हमारी चेतना प्रभावित होती है, वृत्तियाँ चेतना को प्रदूषित कर ऐसी अवस्था तक भ्रष्ट करती हैं, कि मनुष्य कोई भी कार्य करने के लिए तैयार हो जाता है। यही वह समय है जब हम में से अधिकतर लोग, मोक्ष की तलाश में निकलते हैं। क्योंकि मानवी चेतना के पहुंच के परे, हमारे भीतर ही भीतर, मुक्त होने की इच्छा की लौ प्रज्वलित रहती है।

सनातन धर्म के अनुसार जीवात्मा का अपने मुख्य स्रोत की खोज में प्रवास, साधना है। विविध उपासना मार्गों से उस परमात्मा को खोजना हमें वेद सिखाते हैं। मेरे स्वयं के अल्प अनुभव में, गुरु की असीम कृपा एवं संयम के कारण मुझे ज्ञात हुआ, कि यदि मनुष्य ईश्वर को ढूंढने हेतु इच्छुक हो, तो ईश्वर भी जैसे अपने घर में हमारे स्वागत के लिए उत्सुक होते हैं। 

साधक चाहे एकनिष्ठ हो या निष्ठाहीन संदेही हो, इस मार्ग पर चलना आरम्भ करने के पश्चात ईश्वर का स्नेह अवश्य ही अनुभव करता है। एक दिन परम कृपा से निष्ठाहीनता, भक्ति में रुपांतरित हो ही जाएगी। दस मिनट के स्थान पर बीस मिनट तक नामजप चलेगा, फिर शीघ्र ही किसी दिन बीस मिनट का एक घण्टा भी हो सकता है। 

यदि साधना अनवरत चले, तो कुछ महीनों अथवा कुछ वर्षों के पश्चात् अकस्मात किसी एक सुहानी सुबह एक घण्टे के स्थान पर दो घण्टे, फिर और अधिक, होता ही जाएगा। एक दिन ईश्वर के प्रति आपके मन में इतने विशुद्ध प्रेम का निर्माण होगा कि उसकी कृपा आपके प्रत्येक विचार में प्रतिबिंबित होगी। आपके अतिसंवेदनशील क्षणों में आपने अपना जीवन जैसे अपेक्षित किया होगा, वैसे ही अर्थपूर्ण एवं सार्थक हो जाएगा।  

इस जगत में ईश्वर का प्रकटीकरण इतना सत्य है कि वह तर्क के परे है। मैं एक छोटा सा प्रसंग साझा करती हूं। 

२०१८ की बात है। उस समय ग्रीष्म ऋतु चल रही थी। मैं सामान्यतः अपने छज्जे का द्वार खुला छोडकर सोती थी, जिससे बिजली चली जाने पर भी हवा के झोंकों से मुझे ठंडक मिलती रहे। वह एक शुभ मुहूर्त था क्योंकि, मैंने मेरे परम् पूज्य गुरु, श्री ओम स्वामी जी द्वारा दी गई भगवान् विष्णु एवं उनकी नित्य संगिनी देवी लक्ष्मी की ४० दिवसीय साधना आरम्भ की थी।   

 

उस मन्त्र में स्त्री एवं पुरुष, दोनों दैवी तत्त्वों के बीजाक्षर थे। किन्तु जैसे-जैसे साधना आगे बढ़ने लगी, वैसे- वैसे मेरा हृदय अधिकाधिक देवी के पावन चरणों मे समर्पित होने लगा। नामजप में देवी माँ की प्राप्ति की तीव्र इच्छा मेरी हरिभक्ति को पार कर गई। 

मेरे अंदर ही अंदर उनकी स्वीकृति के लिए, उनके स्नेह के लिए कुछ तड़प रहा था। श्रीभगवान् का प्रेम उस रिक्तता की पूर्ति नहीं कर पाया, जो केवल एक माता द्वारा ही सन्तान को प्राप्त हो सकता है। कई बार मैं प्रात: सुबह निश्चित कर लेती, ‘आज मैं भगवान् नारायण के सौम्यावतार पर चित्त एकाग्र करुंगी’, किन्तु वह सहज ही देवी माँ के प्रेमपूर्ण स्त्रीरुप में परिवर्तित हो जाता, और मैं उनके साथ खेलने लगती।

 

प्रत्येक सुबह जैसे ही मैं नामजप करने के लिए बैठती, वैसे ही मुझे देवी अधिक ही प्रिय लगने लगतीं। अनेक सुबहें मेरे लिए खिन्न भी होतीं, जब मैं अपने आप से अत्यधिक निराश होकर अपने आसन से उठती, क्योंकि मैं आसन की स्थिरता बनाकर न रख पाती। जिस प्रकार मेरे प्रिय गुरु ने दृढ़ निष्ठा, एवं निर्दोष भक्ति से एकाग्रता साध्य की थी, वह तो मेरे लिए एक रहस्य ही था।

ये छोटा सा मन, इस जगत में रहकर पुराने संस्कारों से इतना वशीभूत था, कि अनेक बार साधना केवल नाम के लिए चलती।किन्तु अन्य साधकों की तरह, मैं भी अपने निश्चय पर दृढ़ रही एवं भीतर के अश्रु, दुःख एवं हर्षोंन्माद के साथ उस सुन्दर मां को पुकारती रही। मेरी साधना की समाप्ति की रात्रि, मैंने सदा की भांति, स्वच्छ चादर बिछाई और स्वच्छ वस्त्र धारण करते हुए स्वप्न में देवी के दर्शन के लिए, देवी से प्रार्थना की। 

स्वामी जी सदैव बताते हैं, कि यदि साधना परिपूर्ण हुई हो, तो अवश्य ही उसका कोई संकेत, स्वप्न या दृष्टान्त मिलता है। इससे पूर्व मैंने जितनी भी बार साधना की, प्रत्येक बार समाप्ति पर रात्रि में मुझे स्वप्न में मेरे देवता का दर्शन हुआ, तो अब मुझे यह क्रम ज्ञात हो गया है।

वह रात्रि अतीव सुंदर और तेजस्वी थी, तारे चमक रहे थे, एवं पूर्णिमा की रात्रि के लिए कुछ ही रातों का विलम्ब था। जैसे ही मैंने अपना सिर उस निर्मल एवं सुगन्धित सिरहाने पर रखा, तो स्वप्न में मेरी प्रिय रुपवती देवी माँ के दर्शन होने के विचार से मेरा मन अत्यधिक प्रसन्न हो गया। 

स्वप्न तो दिखा नहीं, अपितु मध्य-रात्रि में मैं शिकारी से बचकर भागते हुए किसी जंगली जानवर की अत्यधिक डरावनी आवाज सुनकर, भय से चौंक कर उठ गई।

मैंने जो आवाज सुनी थी, उस पर मेरा मन किञ्चित असमंजसता एवं अस्थिरता में विचार कर रहा था। जैसे ही मैं पूर्णतः जागृत हो गई, मेरे मन में तुरन्त विचार आया, कि ‘मेरा घर नगर के मुख्य मार्ग पर स्थित बहुमंज़िला इमारत की छठवीं मंज़िल पर है, किसी घने अरण्य में नहीं।’ रात्रि के समय भी मार्ग पर वाहन थे। कुछ सूखे पेड़ों के अतिरिक्त, मैं ‘सिमेंट’ के जंगल के मध्य ही रहती थी। किसी जंगली जानवर का वहाँ होना तो असम्भव ही था।

वह डरावनी आवाज पुनः सुनाई दी, मैं अपने बिस्तर से कूद कर अपने जाली के द्वार से बाहर झांकने लगी।

छज्जे के कटघरे पर, मुझ से पांच फीट से भी कम अंतर पर एक उल्लू बैठा हुआ था। वह कोई सामान्य उल्लू नहीं, अपितु हिम की भांति श्वेत वर्ण का था। एवं उसका मुख भी पूर्णतः आकारबद्ध था। कुछ क्षणों के लिए मुझे लगा कि वह किसी बालक का मुख है। मैंने एक ही क्षण में अपने आप को इतना भयभीत एवं मन्त्रमुग्ध कभी अनुभव नहीं किया था। 

उस विशाल उल्लू ने मुझे देखा एवं जैसे कोई तेंदुआ किसी अभागी भेड़ पर आक्रमण करें, वैसे ही वह उड़कर एक रक्तरंजित कबूतर पर आक्रमण करता हुआ, नीचे छज्जे की फर्श पर आकर बैठ गया। मैं बाहर जाकर ज़ोर ज़ोर से अपने पांव फर्श पर पटककर उस उल्लू को भगाने का प्रयास करने लगी, किन्तु उसका कोई परिणाम नहीं हुआ। जैसे ही वह घायल पक्षी किसी कोने में जाने लगा, वैसे ही उल्लू ने पुनः आक्रमण किया। कबूतर की विह्वल कर रही रोने की आवाज सुनकर मैं उल्लू पर उस घायल पक्षी को छोड़ देने हेतु चिल्लाई। 

प्रतिक्रिया स्वरुप, उस उल्लू ने केवल अपने पंख फडफ़ड़ाए एवं शान्ति से कटघरे पर जाकर बैठ गया और पुनः मुझे बिना नेत्र झपकाये एकटक देखने लगा। अब वह केवल तीन फीट की दूरी पर था एवं उसका मुख इतना समीप था कि यदि मैं अपना हाथ बढ़ाती तो उसे स्पर्श कर सकती थी। किन्तु वस्तुतः उसका मुख इतना मानवी था कि उस भीषण रात्रि में वह मुझे अत्यधिक भयभीत कर रहा था। तत्पश्चात् मैं विचार में पड़ गई, “मैं उसे डरा क्यों न सकी? जैसे अन्य पक्षी संकट अनुभव करने पर उड़ जाते हैं, वैसे वह भी उड़ क्यों नहीं गया?” किसी प्राचीन सम्राट की तरह वह शाही रुप से एवं अधिकारपूर्णता से वहीं बैठा रहा।

अकस्मात् मेरे ध्यान में कुछ आ गया, जैसे कोई बिजली चमकी हो, “उल्लू तो भाग्यलक्ष्मी का वाहन है ना? यह विशाल श्वेत उल्लू इस भीड़ भरे नगर में मेरे छज्जे पर क्या कर रहा है?” 

उसी क्षण उस उल्लू ने पुनः बेचारे कबूतर पर आक्रमण किया। मेरी व्यथा शब्दों के परे थी! मैं उस फर्श पर बहते कबूतर के रक्त को दुर्लक्षित कर अपने घुटनों पर बैठ गई। मैंने उस उल्लू को श्रद्धा एवं आदर से वंदन किया, जैसे मैं अपने गुरु एवं श्री हरि को करती हूं। 

मैंने दोनों हाथ जोड़कर पूर्ण श्रद्धा से मन ही मन उसे उस कबूतर को छोड़ देने कि विनती की। 

मैंने कहा, “मुझे ज्ञात है कि कबूतर आपका भक्ष्य है, एवं आपको उसे मारने का पूर्ण अधिकार है। किन्तु कृपा करें, मैं आपको उसे मारने नहीं दे सकती, उसके प्राणों की रक्षा करना मेरा धर्म है। यही मैंने अपने गुरु से सीखा है।” मुझे अपने मन में लग रहा था, कि जैसे मेरे गुरु मेरी परीक्षा ले रहे हैं, जिसमें मुझे उत्तीर्ण होना है।

उसी क्षण एक सुंदर एवं दैवी घटना घटी, जिससे मेरे मन में यह सुनिश्चित हो गया कि उस उल्लू ने मेरी भक्ति को स्वीकार कर लिया। उसके घने काले झुर्रिदार नेत्रों की मुझ पर दृष्टि पड़ी एवं अगले ही क्षण वह अपने दोनों पंख फैलाकर, बहुत दूर उड़ते हुए मेरे सामने आकाश में विलीन हो गया। 

उस निर्दोष श्वेत वर्ण के उल्लू का दर्शन लेकर, कबूतर को सुरक्षित पाकर, पूर्णतः निश्चिंत होना मेरे लिए आजतक एक रहस्य है। मैं पुनः अपने बिस्तर पर जाकर विचार करने लगी, कि मेरी साधना की समाप्ति की रात्रि, मां के पवित्र वाहन का स्वयं से मेरे पास आना, यह केवल संयोग नहीं हो सकता। 

बाद में साधना की समाप्ति पर अपने पूजनीय गुरु के आशीर्वाद प्राप्त कर मैंने उन्हें सम्पूर्ण घटना का कथन किया। स्वामी जी बोले, “वह दैवी कृपा थी, साध्वी जी। देवता के वाहन का दर्शन होना यह आशीर्वाद का सूचक है। किन्तु अधिक महत्त्वपूर्ण बात यह है, कि यह आशीर्वाद है कि देवी मां आपका सदैव रक्षण करेंगी। जब साधक भाव से प्रार्थना करता है, उस समय वह दैवी ही हो जाता है। वह कबूतर कहीं भी जा सकता था, किन्तु उसने आपका घर चुना। उसके अचेतन मन को ज्ञात था कि आपकी यह दिव्यता उसका उल्लू से रक्षण करेगी।”

उसके पश्चात् वे ‘अब के रखी लेहु भगवान’, सूरदास जी की इस रचना से एक हृदयस्पर्शी कथा सुनाने लगे। 

‘किसी पेड की डाली पर आराम से बैठा हुआ एक पक्षी, उसके ठीक ऊपर बैठे हुए एवं उसका शिकार करने पर तुले हुए एक गिद्ध, और बाणसाधे उसका शिकार करने के लिए तैयार एक शिकारी के मध्य फंस जाता है। इससे बचने का कोई भी मार्ग उपलब्ध नहीं होता है। 

वह पक्षी आर्तता से बारंबार दया पाने हेतु भगवान् से प्रार्थना करता है। तभी अचानक कहीं से एक सर्प वहाँ आकर जिस क्षण शिकारी उसपर बाण छोड़ने वाला होता है, उसी क्षण, उसके पैर पर डस लेता है। परिणामतः उसका निशाना गलत होकर बाण उस गिद्ध को जा लगता है।’

जब भी मैं उस घटना पर चिंतन करती हूं, मुझे सदैव स्मरण होता है कि वह मेरी साधना की पवित्रता न होकर मेरे गुरु के तप की अपरिमेय शक्ति है। जिसके कारण मुझे उस तेजस्वी घटना का साक्षी बनने का अवसर मिला।यह मेरे पूज्य गुरू का ही तप है, जिसने मुझे ऐश्वर्य की देवी, माँ लक्ष्मी की एक झलक दिखाई।

गुरु के सच्चे शिष्य को भय किस बात का? उनकी कृपा ही जीवनभर उनकी रक्षा करती है। 

उसके पश्चात् अनेक वर्ष हो गए। देवी माँ ने अनेक सुंदर, विलक्षण अनुभूतियों की वर्षा मुझ पर कई बार की है। 

इस दौरान मैंने कुछ सरल, किन्तु प्रभावी तथ्य जान लिए हैं । 

इस जगत में पूजा, अर्चना करने से होने वाला आनंद ही एकमात्र शाश्वत आनंद है। 

हज़ारों भौतिक वस्तुओं से पूर्णता पाने का नावीन्य एवं आकर्षण उस समय समाप्त हो जाता है, जब भगवान् एवं देवी का स्मित हास्य करता हुआ मुख, साधक के मन में स्थित नेत्रों में दमकता है।  

तप करने से होने वाला लाभ मानवी कल्पना के परे जाता है। वह इतना सात्त्विक, सत्य एवं पवित्र जगत है, कि वह हर प्रकार का दुःख एवं गत कर्मों की चूकों को नष्ट कर आप में स्थित दैवी चैतन्य को अनावृत करता है। 

जीवात्मा का अपने शाश्वत निवास की ओर प्रवास करना यह मानवी जीवन का एक मात्र उद्देश्य है, और वहाँ जाने हेतु साधना एवं गुरुकृपा, एक मात्र वाहन है।

“मैं अपने परम दयालु एवं सर्वशक्तिमान गुरु के पावन चरणों में विनम्र नमन करती हूं, जिनकी असीम कृपा एवं दैवी आशीर्वाद से हर साधना संभव हुई है।”

आइए, साधना एप पर समृधि एवं एश्वर्य की साम्राज्ञी, माँ लक्ष्मी की ऊर्जा को जागृत करें एवं अनादि गुरु की कृपा प्राप्त कर आनंदित हों।

साध्वी वृंदा ओम्, अनेक मंचो द्वारा पुरस्कृत लेखिका, कवियत्री एवं श्री ओम् स्वामी जी के सर्वप्रथम शिष्यों में से एक हैं।साध्वी जी की मंत्र मुग्ध कर देनेवाली पुस्तकों, ‘Om Swami: As we know Him’, ‘The Book of Faith’ एवं तत्कालीन पुस्तक, ‘The Rainmaker’, ने पाठकों पर मर्मस्पर्शी व परिवर्तनकारी प्रभाव डाला है। वे सोफ़िया कालेज अजमेर से स्नातक व प्रबंधन में स्नातकोत्तर हैं।

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